सोमवार, जनवरी 10

सदा जागरण के ही स्वर दे


सदा जागरण के ही स्वर दे


परम अनंत अपार प्रेम वह 

गुरु की महिमा कही न जाए, 

कब कैसे जीवन में आकर 

बिछुड़े हुए सुमीत मिलाए !


प्रेम ज्योति जब मद्धिम होती 

आकर बाती  को उकसाता,

रूखे-सूखे से जीवन में 

पुनः पुनः फूल, बहार खिलाता  !


गुरु बदली सा बनकर बरसे 

जीवन को ख़ुशियों से भर दे, 

नयनों में मुस्कान भरे जो 

सदा जागरण के ही स्वर दे !


गुरू जहाँ, ऐश्वर्य वहाँ है 

अपनेपन की लहरें उठतीं, 

सारा जगत मीत बन जाता 

मन उपवन में कलियाँ खिलतीं !


गुरु दीवानों का यह आलम 

स्वयं बखानें अपनी क़िस्मत, 

तृप्ति के सागरों में डूबें 

मुस्कानें बन जाती फ़ितरत !

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