एक सूर्य उग आए ऐसा
दीप जले अंतर में ऐसा
ज्योति कभी ना ढके तमस से,
जगमग कर दे राहें सारी
कोई विकार छिपे न मन से !
अंत:लोक में जाग उठें हम
एक सूर्य उग आए ऐसा,
युगों युगों की नींदें टूटें
स्वप्न कभी मत घेरे मन को !
अब भी बादल छाते नभ पर
तूफां भीषण तेज हवाएँ,
किंतु अमर यह ज्योति अनुपम
बाल न बाँका ज़रा कर पाएँ !
जो भी जगता इस प्रकाश में
उसे न अंधकार का भय है,
मिथ्या जैसे स्वप्न लोक है
वैसे ही यह जगत लुप्त है !
अनुपम भाव से हृदय दीप्त हुआ। उस सूर्योदय की प्रतीक्षा प्रबल हो उठी। कल्पना कर के भी आनन्द की अनुभूति हो रही है।
जवाब देंहटाएंकविता के मर्म को जान सुंदर प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार अमृता जी !
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२९-०१ -२०२२ ) को
'एक सूर्य उग आए ऐसा'(चर्चा-अंक -४३२५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत आभार अनीता जी !
हटाएंमन में आशा के दीप जलाती बहुत सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंसकारात्मक भावों का संचार करती सुन्दर कृति ॥
जवाब देंहटाएंसकारात्मक भावों से ओतप्रोत बहुत ही उम्दा सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन रचना।
जवाब देंहटाएंबेहद सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंजिज्ञासा जी, मीना जी, मनीषा जी, अनुराधा जी, व भारती दास जी आप सभी का स्वागत व आभार!
जवाब देंहटाएंगुरुकृपा से ज्ञान मिलता और ज्ञान से अंतरात्मा प्रकाशित होती है। तेजोमय आत्मा को भय नहीं रहता। आपकी रचनाएँ ईश्वर से जोड़ देती हैं।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मीना जी !
हटाएंमन में जब आशा का दीप जल जाता है तो प्रकाश आलोकिक हो जाता है ...
जवाब देंहटाएंन बुझने वला ... सदैव प्रज्वलित ..
सही कहा है आपने !
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