शनिवार, जून 18

'है' एक अपार अचल कोई

'है' एक अपार अचल कोई

गर ‘है’ में टिकना आ जाए 

 ‘नहीं’ का कोई सवाल नहीं, 

तृण भर भी कमी कहाँ ‘है’ में 

‘नहीं’ उलझन की मिसाल वहीं !


‘नहीं’ कुछ भी हल नहीं होता 

जग सागर में उठतीं लहरें, 

‘है’  एक अपार अचल कोई 

बन शीतलता देता पहरे !


‘है’ की तलाश में ‘नहीं’ लगा 

हल भी मिलता आधा आधा, 

कैसे यह बुझनी सुलझेगी 

जब तक न बने उर यह राधा !


8 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19-6-22) को "घर फूँक तमाशा"(चर्चा अंक 4465) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

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  2. सकारात्मक सोच को लिए अच्छी रचना ।

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  3. वाह ! अच्छी और सकारात्मक सोच ही हमको हमारी मंज़िल तक पहुंचा सकती है.

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  4. शानदार और सराहनीय प्रस्तुति....

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