जगत और तन
कितना भी बड़ा हो
जगत की सीमा है
या कहें जगत ही सीमा है
निस्सीम के आँगन में खिला एक फूल हो जैसे
कोई चाहे तो बन सकता है
उसकी सुवास
और तब असीम में होता है उसका निवास
घुल-मिल जाता है उसका वजूद
अस्तित्त्व के साथ
और बँटने लगता है
जगत के कोने-कोने में !
जैसे तन स्थिर है
मन के आकाश में
बन जाये तन यदि चेतन
तो एक हो जाता है मन से
ओए शेष रह जाती है ऊर्जा अपार
जो बिखर जाती है बन आनंद
जगत में !
आप ने लिखा.....
जवाब देंहटाएंहमने पड़ा.....
इसे सभी पड़े......
इस लिये आप की रचना......
दिनांक 27/08/2023 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है.....
इस प्रस्तुति में.....
आप भी सादर आमंत्रित है......
बहुत बहुत आभार कुलदीप जी!
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंसुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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