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सोमवार, जुलाई 14

सत्य

सत्य 


सत्य है 

अखंड, एकरस

जानने वाला 

जान रहा प्रतिपल 

 नहीं है भूत या भविष्य 

उसके लिए 

वहाँ कोई भेद नहीं 

न दिशाओं का 

न गुणों का 

भावातीत, कालातीत व देशातीत  

वह बस अपने आप में स्थित है 

वह एक ही आधार है 

पर वह सदा अबदल है 

अभेद्य, अच्छेद्य 

उसमें सब प्रतीति होती है 

पर है कुछ नहीं 

दिखता है यह द्वन्द्वों का जगत 

यहाँ कुछ भी नहीं टिकता 

जबकि उस एक का 

 कुछ भी नहीं घटता ! 





शुक्रवार, जुलाई 11

‘को’ नहीं ‘की’

‘को’ नहीं ‘की’ 


हम भगवान ‘को’ मानते हैं 

भगवान ‘की’ नहीं मानते !

भगवान ‘को’ मानते हैं  

पर हम चलाते अपनी हैं  

भगवान ‘की’ मानने से 

निष्काम कर्म करना है 

उनके कर्म में हाथ बँटाकर 

इस जगत में सुंदर रंग भरना है 

जगत जो अभी हो रहा है 

परमात्मा ही जगत के रूप में 

नये-नये रूप धर रहा है 

उसकी मानें तो हम उसी के रूप हैं 

उसी के गुण हमें धारने हैं 

स्वयं को संवरते हुए, देखना है 

प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों में 

 उसकी ही छवि को 

धरा पर पुष्प और 

गगन पर रवि को 

तब वही हमारे द्वारा कर्म करता है 

यह सब भगवान ‘की’ मानने से घटता है !


रविवार, फ़रवरी 16

गहराई

गहराई 


चेतना जुड़ती है जगत में 

इससे-उससे 

लोगों, विचारों 

क्रिया और वस्तुओं से 

शायद कुछ भरना चाहती है 

नहीं जानती 

भीतर अंतहीन गहराई है 

जो नहीं भरी जा सकती 

किसी भी शै से 

इसी कोशिश में 

कुछ न कुछ पकड़ लेता है मन 

और जिसे पकड़ता 

वह जकड़ लेता है 

फिर छूटने उस जकड़न से 

साधता है वैराग्य 

ऐसे ही बनता है

 मानव का भाग्य !



बुधवार, अक्टूबर 9

रेत पर टिकते नहीं घर

रेत पर टिकते नहीं घर

​​

स्वप्न ही तो है जगत यह 

टूटना नियति है इसकी, 

सत्य मानो या सहेजो 

छूटना फ़ितरत इसी की ! 


आँख भरकर देख लो बस 

मुस्कुरा लो साथ मिलकर, 

किंतु न बाँधो उम्मीदें 

रेत पर टिकते नहीं घर !


ओस की इक बूँद हो ज्यों 

है यही सौंदर्य इसका, 

गगन में रंगों का मेल 

नदी में ज्यों बहे धारा !


प्रीत की जो बेल बोई 

वह सदा उसके लिए है, 

भ्रम हुआ जब जगत चाहा 

शाश्वत सदा अप्रगट है !


जगत माला में पिरोया 

स्वयं बनकर पूर्ण आया, 

स्वयं को ही देखते हम 

स्वप्न का लेते सहारा !


शनिवार, अगस्त 26

जगत और तन

जगत और  तन 


कितना भी बड़ा हो 

जगत की सीमा है 

या कहें जगत ही सीमा है 

निस्सीम के आँगन में खिला एक फूल हो जैसे 

कोई चाहे तो बन सकता है 

उसकी सुवास 

और तब असीम में होता है उसका निवास 

घुल-मिल जाता है उसका वजूद 

अस्तित्त्व के साथ 

और बँटने लगता है 

जगत के कोने-कोने में !

जैसे तन स्थिर है 

मन के आकाश में 

बन जाये तन यदि चेतन 

तो एक हो जाता है मन से 

ओए शेष रह जाती है ऊर्जा अपार 

जो  बिखर  जाती है बन आनंद

जगत में ! 


शुक्रवार, जुलाई 21

अक्सर


अक्सर 


हम जिससे बचना चाहते हैं 

बच ही जाते हैं

जैसे कि कर्त्तव्य पथ की दुश्वारियों से 

अपने हिस्से के योगदान से 

कुछ भी न करके 

हम पाना चाहते हैं सब कुछ 

जगत जलता रहे 

हम सुरक्षित हैं 

जब तक आँच की तपन 

हमें झुलसाने नहीं लगती 

हम हिलते ही नहीं 

अकर्मण्यता की ऐसी ज़ंजीरों ने जकड़ लिया है 

कभी भय, कभी असमर्थता की आड़ में 

हम छुप जाते हैं 

छुपना पलायन है 

पर कृष्ण अर्जुन को भागने नहीं देते 

हर आत्मा को लड़ना ही पड़ता है

एक युद्ध 

प्रमाद के विरुद्ध 

यदि उसे पाना है अनंत 

ऊपर उठना होगा अपनी अक्षमताओं से 

प्रेम को ढाल नहीं कवच बनाकर 

उतरना होगा 

कर्त्तव्य पथ पर !  


रविवार, दिसंबर 4

लहरें और सागर



लहरें और सागर


लहर पोषित करती है स्वयं को 

सागर पूर्णकाम है 

लहार  चाह से भरी  है 

सागर  तृप्त  है

लहर दौड़ लगाती है 

शायद दिखाना चाहती है शौर्य तटों को 

सागर के सिवा कोई दूसरा नहीं 

दिखाए भी किसे 

लहर विशिष्ट है 

सागर निर्विशेष 

वह शुद्ध, बुद्ध 

मुक्त, तृप्त और आनंद स्वरूप है 

लहर की नज़र सदा अन्य पर रहती है 

सागर स्वयं में ठहरा है 

जब तक मिला नहीं सागर भीतर 

मन की लहर ही चलाती है 

सुख-दुःख झूले में झुलाती है 

सागर जुड़ा है अस्तित्व से 

लहर दूरियाँ बढ़ाती है 

सदा किसी तलाश में लगी 

कुछ न कुछ पाने की जुगत लगाती 

सागर में होना 

जगत नियंता के चरणों में बैठना है 

लहर से सागर की खोज एक यात्रा है 

 आनंद से भर  सकता है 

इस यात्रा का हर पल

यदि कोई लहर थम जाए 

और जान ले अपना सागर होना

 पल भर के लिए  !


रविवार, सितंबर 18

जैसे कोई घर लौटा हो

जैसे कोई घर लौटा हो


जगत पराया सा लगता था 

जब थी तुझसे पहचान नहीं, 

तेरी आँखों को पहचाना 

 सबमें  झांक रहा था तू ही !


अब कहाँ कोई है दूसरा 

जैसे कोई घर लौटा हो, 

कतरे-कतरे से वाक़िफ़ है 

जिसने अपना मन देखा हो !


जीवन का प्रसाद पाएगा 

आज यहीं इस पल में जी ले, 

दिल की धड़कन में जो गूँजे 

गीत बनाकर उसको पी ले ! 


शावक के नयनों से झाँके 

फूलों के नीरव झुरमुट में, 

तारों की टिमटिम जिससे है 

भ्रम के उस अनुपम संपुट से !


एक वही तो सदा पुकारे 

प्रेम लुटाकर पोषित करता, 

रग-रग से वाक़िफ़ है सबकी 

अनजाना सा बन कर रहता !


गुरुवार, जुलाई 7

स्वप्न में मन बुने कारा


स्वप्न में मन बुने कारा


एक का ही है पसारा

गुनगुनाता जगत सारा,

निज-पराया, अशुभ-शुभता,

स्वप्न में मन बुने कारा !


मित्र बनकर स्नेह करता 

शत्रु बन खुद को डराता, 

जाग कर देखे, कहाँ कुछ ?

सकल पल में हवा होता !


जगत भी यह रोज़ मिटता 

आज, कल में जा समाता, 

अटल भावी में  यही कल 

देखते ही जा सिमटता !


नींद में किस लोक में था 

भान मन को कहाँ होता,   

जाग भीतर कौन जाने  

खबर स्वप्नों की लगाता !


अचल कोई कड़ी भी है  

जो पिरोती है समय को, 

जिस पटल पर ख़्वाब दिखते 

सदा देती जो अभय को !


क्या वही अपना सुहृद जो 

रात-दिन है संग अपने, 

जागता हो हृदय या फिर 

रात बुनता मर्त्य सपने !

शुक्रवार, जून 3

गीत समर्पण का

 गीत समर्पण का 

हमारी चाहतों में नहीं था प्यार 

कभी लाघें नहीं मंदिरों के द्वार 

दूर से ही देखते रहे 

लोगों का आना-जाना 

अभी तो हमें था अपनी प्रतिमा को सजाना 

जो भी किया खुद के लिए 

औरों का ख़्याल ही नहीं आता था 

अहंकार का पत्थर सम्मुख खड़ा 

हो जाता था 

अपनी सुविधा देखकर की थी किसी की भलाई 

थोड़ा सा दान देते हुए बड़ी सी तस्वीर भी खिंचवाई 

हमारी ख़ुशी हमारी अपनी बढ़ोतरी में नज़र आती 

यह जगत हमारे लिए ही बना है 

जाने कौन सी माया यह बता जाती थी 

पर कहाँ मिली ख़ुशी, क्योंकि

उसमें प्यार की खुशबू नहीं थी

ख़ुशी प्रकाश की तरह सीधी नहीं मिलती 

परावर्तित होकर अपने भीतर खिलती है 

यह राज किसी के सामने खुलता है 

तो वह पहली बार अस्तित्त्व के सामने झुकता है 

उस समर्पण में ही भीतर कोई द्वार खुलता है 

हवा का एक झोंका सा आकर 

सहला जाता है 

तब देने की ललक जगती है ! 


शुक्रवार, नवंबर 26

जाग भीतर कौन जाने

जाग भीतर कौन जाने  


एक का ही है पसारा

गुनगुनाता जगत सारा,

निज-पराया, अशुभ-शुभता,

स्वप्न में मन बुने कारा !


मित्र बनकर स्नेह करता 

शत्रु बन खुद को डराता, 

जाग कर देखे, कहाँ कुछ ?

सकल पल में हवा होता !


जगत भी यह रोज़ मिटता 

आज में कल जा समाता, 

अटल भावी में  यही कल 

देखते ही जा सिमटता !


नींद में किस लोक में था 

भान मन को कहाँ होता,   

जाग भीतर कौन जाने  

खबर स्वप्नों की सुनाता !


अचल कोई कड़ी भी है  

जो पिरोती है समय को, 

जिस पटल पर ख़्वाब दिखते 

सदा देती जो अभय को !


क्या वही अपना सुहृद जो 

रात-दिन है संग अपने, 

जागता हो हृदय या फिर 

रात बुनता मर्त्य सपने !