सोमवार, अगस्त 21

माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः

माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः

धरती हमें धरती है 

माँ की तरह 

पोषित करती है 

फल-फूल, अन्न,  शाक से 

क्षुधा हरती है 

वे पात्र जिनमें ग्रहण किया भोजन 

वे घर जो सुरक्षा दे रहे 

वे वस्त्र जो बचाते हैं 

सजाते हैं ग्रीष्म, शीत, वर्षा से 

सभी तो धरती माँ ने दिये 

अनेक जीवों, प्राणियों का आश्रय धरा 

उसने कौन सा दुख नहीं हरा 

अंतरिक्ष की उड़ान के लिए मानव ने 

ईंधन कहाँ से पाया 

आलीशान पोत बनाये 

समान कहाँ से आया 

धरा से लिया है सदा हमने 

कृतज्ञ होकर पुकारा है कभी माँ ! 

विशाल है धरा 

जलाशयों, सागरों 

और पर्वतों का आश्रय स्थल 

भीतर ज्वाला की लपटें 

तन पर हिमाच्छादित शिखर 

रेतीले मैदान और ऊँचे पठार 

वह सभी कुछ धारती है 

निरंतर घूमती हुई 

अपनी धुरी पर 

सूर्य की परिक्रमा करती है 

हरेक का जीवन संवारती है 

उसका दिल इतना कोमल है कि 

एक पुकार पर पसीज जाता है 

धरती को अपना नहीं अपने बच्चों का 

ख़्याल घुमाता है !


2 टिप्‍पणियां:

  1. असंख्य, अनगिनत ज्यादतियों के बावजूद हमें अपने ममत्व के आँचल में समेटे बैठी है ! ये तो माओं की भी माँ है 🙏

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. कितना सही और सुंदर कहा है आपने, स्वागत व आभार!

      हटाएं