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सोमवार, अक्टूबर 23

शिकायत ख़ुद से भी अनजान हुई



  शिकायत ख़ुद से भी अनजान हुई 



खुद से खुद की जब पहचान हुई

ज़िंदगी फ़ज़्र की ज्यों अजान हुई 


जिन्हें गुरेज था चंद मुलाक़ातों से 

गहरी हरेक से जान-पहचान हुई 


तर था दामन अश्रुओं से जिनका 

मोहक अदा सहज मुस्कान हुई 


दिलोजां लुटाते हैं अब जमाने पर

  शिकायत ख़ुद से भी अनजान हुई 


फासले ही हर दर्द का सबब बनते 

मिटी दूरी सुलह सबके दरम्यान हुई 

रविवार, फ़रवरी 9

एक न एक दिन

एक न एक दिन... जहाँ दो हैं संघर्ष जारी रहेगा जहाँ दो हैं मार-काट नहीं रुकेगी कभी दूसरे की सोच पर मार अभी अन्य के विचार की काट जहाँ दो हैं वहाँ अहंकार टकराएगा एक यदि भीरु होगा दूसरा दबाएगा एक यदि सहिष्णु होगा दूसरा सताएगा जहाँ दो होंगे और समझ होगी वहीं चैन होगा जहाँ दो होंगे और आपसी सम्मान होगा वहीं शांति होगी कुछ तत्व हैं जो समझदारी को कमजोरी मानते हैं जो लड़ने-भिड़ने को होशियारी मानते हैं शांति के हिमायती सहते हैं हर अत्याचार पर एक न एक दिन वे भी हो जाते हैं लाचार अब उधर भी जज्बात उभरने लगते हैं अपनी पहचान के दीप जलने लगते हैं अब साफ हो गया है या तो बराबरी और समझदारी ही काम आएगी अन्यथा चैन घटता ही जाएगा....