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बुधवार, अप्रैल 24

नयन स्वयं को देखते न

नयन स्वयं को देखते न 


हम हमीं को ढूँढते हैं 

पूछते फिरते कहाँ हो ?

हम हमीं को ढूँढते हैं 

पूछता ‘मैं’ ‘तुम’ कहाँ हो ?


खेल कैसा है रचाया 

अश्रु हर क्योंकर बहाया, 

नयन स्वयं को देखते न 

रहे उनमें जग समाया !


अस्त होता कहाँ दिनकर 

डोलती है भू निरंतर, 

देह-मन को करे जगमग 

आत्मा सदा दीप बन कर !


प्रश्नवाचक जो बना है

पूछता जो प्रश्न सारे

भावना से दूर होगा 

दर्द जो अब भरे आहें !


जो नचाती, घेरती भी  

एक छाया ही मनस की, 

दूर ले जा निकट लाती 

लालसा जीवन-मरण की !


‘तू’ छिपा मुझी  के भीतर 

‘मैं’ मिले ‘तू’ झलक जाये 

एक पल में हो सवेरा 

भ्रम मिटाकर रात जाये !


बुधवार, मई 31

जब

जब 

प्रेम एक आशीष सा 

झोली में आ गिरता है 

दिशाएँ गाने लगतीं 

कोहरे में छिपा लाल सूर्य का गोला 

अंकित हो जाता सदा के लिए 

मन के आकाश पर 

वृक्षों के तनों से सटकर बैठते

 ज़मीन की छुअन को 

महसूस करता तन 

फूलों की सुवास 

किसी नशीली गंध की तरह 

भीतर उतर जाती

वर्षा की प्रथम मोटी-मोटी बूदें 

जब पड़तीं सूखी धरा का ताप हरने 

ठहर जातीं कमल के पत्तों पर पारे की तरह 

लटकती डालियों से झूलते 

कभी घास पर लेटकर 

तकते घंटों आकाश को 

एकाकी कहाँ रहता है सफ़र जीवन का 

जो अस्तित्त्व को निज मीत बनाता है 

वृक्षों, फूलों, बादलों को 

नित क़रीब पाता है 

भावना में जीता वह

भावना को पीता है 

मौन में गूंजती हुई 

दिशाओं संग 

गुनगुनाता है 

अचल तन में घटता है नृत्य भीतर

निरख श्यामला धरा 

अंतर लहलहाता है 

उड़ता है हंसों के साथ 

मानसरोवर की पावनता में 

शांति की शिलाओं पर 

थिर हो आसन  जमाता है 

ज्ञान का सूर्य जगमगाता है 

निरभ्र निस्सीम आकाश सा उर 

बन जाता है ! 

 



रविवार, अप्रैल 26

भेद - अभेद

भेद - अभेद 


शब्दों को मार्ग दें तो वे 
भावनाओं के वस्त्र पहन 
 बाहर चले आते हैं 
यदि राह में कण्टक न हों 
बेहिसाब इच्छाओं के 
प्रमाद के पत्थर न रोक लें उनका मार्ग 
तो विमल सरिता से वे बहते चले आते हैं 
धोते हुए अंतर्जगत 
और बाहर भी उजास फैलाते हैं 
शब्दों में छुपा है ऋत
और वाग्देवी ने उन्हें तराशा है 
मानव के पास अस्तित्त्व का 
अनुपम उपहार उसकी भाषा है 
इन्हें मैला न होने दें  
इन्हें तोड़ने का नहीं जोड़ने 
का साधन बनाएं 
मानवता को सुलाने के लिए लोरी न बनें ये 
इनमें क्रांति की चिंगारी सुलगाएँ
कि गिर जाएँ मिथ्या दीवारें 
खो जाएँ सारे भेद 
एक गुलदस्ते की तरह 
नजर आये दुनिया 
घटे अभेद !

बुधवार, जनवरी 22

समाधि का फूल

समाधि का फूल

“जब गिर जाएगी झूठ की आखिरी दीवार भी भीतर 
सुडौल हो जायेगा भावनाओं का नुकीला पत्थर घिसते-घिसते 
जो चुभ जाता था खुद को और चुभाया जाता था दूसरों को 
जब तृप्त हो जाएगी मन की आखिरी वासना भी 
जीने की, यश और साहचर्य की 
“जब गिर जाएगी झूठ की आखिरी दीवार भी भीतर सुडौल हो जायेगा भावनाओं का नुकीला पत्थर घिसते-घिसते जो चुभ जाता था खुद को और चुभाया जाता था दूसरों को जब तृप्त हो जाएगी मन की आखिरी वासना भी जीने की, यश और साहचर्य की जब उत्तेजना के साधन नहीं जुटाने होंगे मन के शावक को तृप्त होगा वह उस कोमल शिशु की भांति जो जल की अनंत राशि पर लेटा तिरता है जब ऐसा होगा तो समाधि का फूल खिलेगा” कहा गुरू ने पूछा शिष्य ने, “जब तक खिले न समाधि का फूल, कोई ऐसा कैसे हो सकता है ? देख पायेगा वही भीतर असत्य का धुआं जो जाग गया है आत्मकामी होना बिना असीम सुख को पाए सम्भव ही नहीं “ गुरू ने एक फूल दिया शिष्य को और पूछा, “यह पहले खिला या सहे इसने बीज से फूल होने की यात्रा के दंश मिटाया अपने अस्तित्व को सही धूप और बारिश की मार वह बीज तुम हो ! समाधि का फूल जो खिलेगा एक दिन उसकी संभावना भीतर लिए हो !”

मंगलवार, अगस्त 20

रक्षा बंधन के उत्सव पर हार्दिक शुभकामनायें

राखी


कोमल सा यह जो धागा है
कितने-कितने भावों का
समुन्दर छुपाये है
जिसकी पहुंच उन गहराइयों तक जाती है
जहाँ शब्द नहीं जाते
शब्द असमर्थ हैं
जिसे कहने में
कह देता है राखी का रेशमी सूत्र
सम्प्रेषित हो जाती हैं भावनाएं
बचपन में साथ-साथ बिताये
दिनों की स्मृतियों की
गर्माहट होती है जिनमें
वे शरारतें, झगड़े वे, वे दिन जब एक आंगन में
एक छत के नीचे एक वृक्ष से जुड़े थे
एक ही स्रोत से पाते थे सम्बल
 एक ही ऊर्जा बहती थी तन और मन में
वे दिन बीत गये हों भले
पर नहीं चुकती वह ऊर्जा प्रेम की
 वह प्रीत विश्वास की
खेल-खिलौने विदा हो गये हों
पर नहीं मरती उनकी यादें
उनकी छुअन  
रक्षा बंधन एक त्योहार नहीं
स्मृतियों का खजाना है
हरेक को अपने बचपन से
बार-बार मिलाने का बहाना है
और जो निकट हैं आज भी
उनकी यादों की अलबम में
एक नया पन्ना जोड़ जाना है