बुधवार, फ़रवरी 22

ठहर गया उर ज्यों आकाश


ठहर गया उर ज्यों आकाश


विरस हुआ जग से जब कोई
स्वरस में डूबा उतराया,
धीरे-धीरे उससे उबरा
रस कोई भी बांध न पाया ! 

जग से लौटा ठहरा खुद में
स्वयं से भी फिर मुक्त हुआ,
स्वयं ‘पर’ के बल पर ही टिकता
मन इससे भी रिक्त हुआ !

अब न कोई दौड़ शेष है
न जग की न भीतर की ही,
ठहर गया उर ज्यों आकाश
कंपती नहीं ज्योति अंतर की ! 

9 टिप्‍पणियां:

  1. अब न कोई दौड़ शेष है
    न जग की न भीतर की ही,
    ठहर गया उर ज्यों आकाश
    कंपती नहीं ज्योति अंतर की !
    bahut sundar rachna

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  2. ठहर गया उर ज्यों आकाश
    कंपती नहीं ज्योति अंतर की !
    sunder udgar man ke ...

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  3. जग से लौटा ठहरा खुद में
    स्वयं से भी फिर मुक्त हुआ,
    स्वयं ‘पर’ के बल पर ही टिकता
    मन इससे भी रिक्त हुआ !

    बहुत ही सुन्दर.....काश ये अवस्था कभी हम जैसो की भी हो जाये।

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  4. जग से लौटा ठहरा खुद में
    स्वयं से भी फिर मुक्त हुआ,
    स्वयं ‘पर’ के बल पर ही टिकता
    मन इससे भी रिक्त हुआ !

    इस भावपूर्ण रचना के लिए बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  5. बहुत गहन और सुंदर प्रस्तुति...आभार

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  6. यही तो मुक्ति मार्ग है...

    सुन्दर भाव अनीता जी..
    सादर.

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  7. अब न कोई दौड़ शेष है
    न जग की न भीतर की ही,
    ठहर गया उर ज्यों आकाश
    कंपती नहीं ज्योति अंतर की !
    ... "..............."

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  8. बेहतरीन भाव ... बहुत सुंदर रचना प्रभावशाली प्रस्तुति

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  9. बहुत बड़ी बात है जो भीतर की ज्योति कांपे नहीं .. मंत्रमुग्ध करती रचना..

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