रविवार, अक्तूबर 13

बहे उजाला मद्धिम-मद्धिम

बहे उजाला मद्धिम-मद्धिम


बरस रहा है कोई अविरत
 झर-झर झर-झर, झर-झर झर-झर
भीग रहा न कोई लेकिन
ढूँढे जाता सरवर, पोखर !

प्रीत गगरिया छलक रही है
 युगों-युगों से सर-सर सर-सर,
प्यासे कंठ न पीते लेकिन
 अकुलाये से खोजें निर्झर !

ज्योति कोई जले निरंतर
बहे उजाला मद्धिम-मद्धिम,
राह टटोले नहीं मिले पर  
अंधकार में टकराते हम !

6 टिप्‍पणियां:

  1. राह टटोले नहीं मिले पर
    अंधकार में टकराते हम !
    सुन्दर !
    अभी अभी महिषासुर बध (भाग -१ )!

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  2. अति सुन्दर भाव की सशक्त रचना गीतात्मक प्रस्तुति भाव की राग सदृश्य।

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  3. प्रीत गगरिया छलक रही है
    और भींग रहा है तन-मन..
    अति सुन्दर..

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  4. कालीपद जी, वीरू भाई, अनु जी व अमृता जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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