शुक्रवार, मार्च 21

जब शासक वह बन जाता है


जब शासक वह बन जाता है


दायित्वों का बोझ उठाना
कर्त्तव्यों को ठीक निभाना,
स्वयं तक सीमित रह जाता है
सेवक बन के जो आता है.

जब शासक वह बन जाता है !

प्रेम के पथ से है अनजाना
सेवा में सुख वह क्या जाने,
न नीति न शेष राज है
 राजनीति वंचित दोनों से !

दुःख ही बस फैला जाता है !

ईर्ष्या, भय, शंका, अभिमान
यही सम्भाले चलता रहता,
शक्ति व अधिकार मिले जो
निज सुख हेतु उन्हें भुनाता.

पतन ही मंजिल पर पाता है !

कितनी मुस्कानें ओढ़ी हों
निर्मलता अंतर की कुचल दे,
स्वप्न भी उसके कम्पित करते
जो विवेक को ताक पे रख दे.

सच से नजर चुरा जाता है !  



6 टिप्‍पणियां:

  1. ईर्ष्या, भय, शंका, अभिमान
    यही सम्भाले चलता रहता,
    शक्ति व अधिकार मिले जो
    निज सुख हेतु उन्हें भुनाता.
    ....बहुत सुन्दर और सटीक प्रस्तुति...

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  2. सशक्त व्यंग्य विडंबन आज की राजनीति का नंगा खुला विराट रोद्र सच।

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  3. स्वप्न भी उसके कम्पित करते
    जो विवेक को ताक पे रख दे.

    सच से नजर चुरा जाता है !

    सुन्दर भाव....

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  4. यही सच है जो दुनिया में बिखरा पड़ा है.

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  5. ऐसे शासकों को सबक सिखाने का ही तो पर्व है ये ... अर्थपूर्ण भाव ...

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  6. वीरू भाई, कैलाश जी, पूनम जी व प्रतिभा जी, आप सभी का स्वागत व आभार !

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