बन जाये मन स्वयं उजास
झर जाता है कुम्हलाया पुष्प
धरा पर आहिस्ता से जैसे
बिखर जाती है पाँखुरी-पाँखुरी
सहजता से विलग हो डाली से
पिघल जाये वैसे ही सारी उदासी
मन रहे निर्मल.. पल पल..
यही प्रार्थना है !
हर बादल बरस जाता है जैसे
निज भार से हो पीड़ित
बिखर जाती है बूँद बूँद
सहजता से धरा पर
खो जाये हर छोटी बड़ी कामना
खिला रहे मन का आकाश..
निरभ्र नील वितान सा
यही अर्चना है !
उजाला भर जाता है जैसे
नन्हा सा एक दीया..
जल जाये दुःख के तेल में
बाती अहंकार की
बन जाये मन स्वयं उजास
यही वन्दना है !
बन जाये मन स्वयं उजास
जवाब देंहटाएंयही वन्दना है !
sundar sandesh prasarit karti rachna hetu badhai
मन रहे निर्मल.. पल पल..
जवाब देंहटाएंयही प्रार्थना है !
nice poem .
मन को निर्मल करने वाली रचना ।वन्दना और शुभकामना
जवाब देंहटाएंसुन्दर अति सुन्दर वंदना है बस हो रहे विसर्जन अहम् तत्व का भीतर बाहर
जवाब देंहटाएंयही सार्थक प्रार्थना ,अर्चना और वंदना है - साधुवाद स्वीकार करें !
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धक कविता के लिए आभार.....शब्दों के अर्थ के साथ कविता की सुन्दरता बढ गई ....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर वंदना है...
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव… हृदय से लिखी गई इस सुंदर वंदना के लिए साधुवाद ...
जवाब देंहटाएंकहने को जी हो आया
जवाब देंहटाएंतथास्तु ..... आमीन .....
हर मुराद पूरी हो
वाह !!!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति !
शालिनी जी, वीरू भाई, हिमकर जी, विभा जी, संजय जी, माहेश्वरी जी, गिरिजा जी, प्रतिभा जी, शिखा जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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