सोमवार, मार्च 10

नीलमणि सा कोई भीतर

नीलमणि सा कोई भीतर



कितने दर्द छिपाए भीतर
 ऊपर-ऊपर से हँसता है,
 कितनी परतें चढ़ी हैं मन पर
 बहुत दूर खुद से बसता है !

जरा उघेड़ें उन परतों को
 नीलमणि सा कोई भीतर,
जगमग चमचम दीप जल रहा
झलक दिखाने को आतुर !

कभी लुभाता जगत, यह जीवन
छूट न जाये भय सताता,
कभी मगन हो स्वप्न सजाये
भावी सुख के गीत बनाता !

इस पल में ही केवल सुख है
जिसने अब तक राज न जाना,
आशा ही बस उसे जिलाती
जिसने खुद को न पहचाना !

जीना जिसने सीख लिया है
कुछ भी पाना न शेष रहा,
हर क्षण ही तब मुक्ति का है
लक्ष्य न कोई विशेष रहा !   

9 टिप्‍पणियां:

  1. जीना जिसने सीख लिया है
    कुछ भी पाना न शेष रहा,
    हर क्षण ही तब मुक्ति का है
    लक्ष्य न कोई विशेष रहा !
    ...बिल्कुल सच...लोग जीने की भाग दौड़ में जीना ही भूल गए हैं...बहुत प्रभावी प्रस्तुति...

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  2. सुन्दर व् सार्थक अभिव्यक्ति .बधाई

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  3. कैलाश जी व शालिनी जी, स्वागत व आभार !

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  4. परत ऐसा चढ़ा है कि उघड़-उघड़ कर भी चिपका ही रहता है और नीलमणि स्वप्न सा लगता है . अति सुन्दर कृति..

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  5. अत्यंत सुन्दर ..... आपकी रचना पर अक्सर कुछ भी कहने के लिए शब्द ही नहीं मिल पाते

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  6. ऊपरी आवरणों के पार अंतर में स्थित नीलमणि को जिसने पा लिया वह धन्य है .पर उसे पूरा कौन पा सका, कुछ न कुछ शेष रह कर बार-बार उद्वेलित करता है

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  7. बहुत बहुत आभार यशवंत जी !

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