शनिवार, नवंबर 29

मुट्ठी में सिमटी रेत ज्यों

मुट्ठी में सिमटी रेत ज्यों


हर कहानी है अधूरी
हर मन यहाँ कुछ खोजता,
रहता सदा अपूर्ण जग
मंजिल मिलेगी सोचता !

सीलें इधर सीलें उधर
पैबंद ही हैं हर तरफ,
पांव सिकोड़ें सिर खुले
धुंधले पड़ें जीवन हरफ !

मुट्ठी में सिमटी रेत ज्यों
थामें इसे, वह छूटता,
सोना नहीं पीतल था वह
हर भ्रम यहाँ है टूटता !

मिलती नहीं जग में कभी
जिस जीत की तलाश है
अपने ही भीतर झांक लें
खोलें उसे जो पाश है !


2 टिप्‍पणियां:

  1. पाश भी तो न जाने कितने है...अनगिनत भ्रम पाले।
    इस जकडन से मुक्ति ही आत्मा का सुकून है।
    सुन्दर रचना।

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    1. सही कहा है आपने अनिल जी, पहले उन पाशों को पहचानना होगा

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