लीला एक अनोखी चलती
सारा कच्चा माल पड़ा है वहाँ
अस्तित्त्व के गर्भ में....
जो जैसा चाहे निर्माण करे निज जीवन का !
महाभारत का युद्ध पहले ही लड़ा जा चुका है
अब हमारी बारी है...
वहाँ सब कुछ है !
थमा दिये जाते हैं जैसे खिलाडियों को
उपकरण खेल से पूर्व
अब अच्छा या बुरा खेलना निर्भर है उन पर !
वहाँ शब्द हैं अनंत
जिनसे रची जा सकती हैं कवितायें
या लड़े जा सकते हैं युद्ध,
वहाँ बीज हैं
रुप ले सकते हैं जो मोहक फूलों का
बदल सकते हैं मीठे फलों में
परिणित किया जा सकता है जिन्हें उपवन में
या यूँ ही छोड़ दिया जा सकता है
सड़ने को !
उस महासागर में मोती पड़े हैं
जिन्हें पिरोया जा सकता है
मुक्त माल में
अनजाने में की गयी हमारी कामनाओं की
पूर्ति भी होती है वहाँ से
हम ही चुन लेते हैं कंटक....
जानता ही नहीं जो, उसे जाना कहाँ है
अस्तित्त्व कैसे ले जायेगा उसे और कहाँ ?
जो जानता ही नहीं खेल के नियम
वह खेल में शामिल नहीं हो पायेगा
लीला चल रही है दिन-रात
उसके और उसके अपनों के मध्य
हमारे तन पहले ही मारे जा चुके हैं
आत्माएं अमर हैं नये-नये कलेवर धर....
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार राजीव जी व सुशील जी !
जवाब देंहटाएं