टूट गया जड़ता का बंधन
कुसुम उगाया उपवन में जब
मन मकरन्द हुआ जाता है,
प्रीत भरी इक नजर फिराई
अंतर् भीग-भीग जाता है !
खंजन ख़ुशी बिखेरें गाकर
सहज उड़ान भरा करते हैं,
स्वीकारा हँसकर जब जग को
मधुमय गीत झरा करते हैं !
राग-रागिनी जहाँ गूँजती
प्राणों में जग गया स्पंदन,
सुरभित हुई कायनात यह
टूट गया जड़ता का बंधन !
दरिया चला सौंपने स्वयं को
सागर का अनुयायी बनकर
मुक्त हुआ जा पहुँचा नभ में
सहज पवन-रवि अंक में चढ़कर !
स्वप्न सजाये भर नयनों में
सृष्टि पूर्ण करने को आतुर,
बादल दौड़े चले आ रहे
सुनी पुकार लगाये दादुर !
व्यर्थ हुई कम्पन श्वासों की
निकट स्रोत अमृत का बहता,
जगी प्रार्थना अंतर् में जब
कण विषाद का भी न रहता !
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन राहुल सांकृत्यायन जी की 125वीं जयंती और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !
जवाब देंहटाएंसच ! जगी प्रार्थना है मन में ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अमृता जी !
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