सोमवार, दिसंबर 23

मन इक बगिया सा खिल जाता

मन इक बगिया सा खिल जाता



निज के मुखड़े पर धूल लगी
दर्पण को दोष दिए जाते
हिंसा जब मन में बसती हो
अवसर भी उसके मिल जाते

स्वीकार किया जिस क्षण सच को
झर जाता हर संशय उर से
मन इक बगिया सा खिल जाता
मिटते बादल भय के डर के

अपने वैभव को जला दिया
जिस क्षण हिंसा का साथ दिया
कटुता जो सही नहीं जाती
खुद में थी जग को दोष दिया

कितने कलुषित वे क्षण होंगे
जिनमें विद्वेष पला करता
भुला अस्मिता गौरव निज का
मानव हर बार छला जाता

10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (24-12-2019) को    "अब नहीं चलेंगी कुटिल चाल"  (चर्चा अंक-3559)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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  2. कितने कलुषित वे क्षण होंगे
    जिनमें विद्वेष पला करता
    भुला अस्मिता गौरव निज का
    मानव हर बार छला जाता

    सबकुछ मानव के हाथ में है, वही छलता है छलाता भी है
    बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना ....... ,.25 दिसंबर 2019 के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।श

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