द्रष्टा
कवि द्रष्टा है
उसने सत्य देखे हैं
भुला देने दो सारे शास्त्र
वह स्वयं शास्त्र है
भुला देने तो सारा अतीत
वह नया इतिहास रचेगा
उससे झरते हैं शब्दों के झरने
जहां से बनती है सृष्टि
उसने चुना है वह
जो कोई अन्य नहीं चुनता !
राही है वह अनजान राहों का
अनसुलझे रहस्यों का
बिना चढ़े ही नापी हैं उसने हिमालय की चोटियां
रोया है उसका मन
उस कृषक के साथ
सुख गए हैं जिसके खेत
वह मुस्काया है वर्षा की पहली बून्द पर
उस तरह जैसे मुस्काये न कोई
कोहिनूर मिलने पर !
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएं"कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू:"
स्वागत व आभार !
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
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