इक अनंत आकाश छुपा है
इक अनंत आकाश छुपा है
ऋतु बासन्ती बाट जोहती,
अंतर की गहराई में ही
छिपा सिंधु का अनुपम मोती !
दिल तक जाना है दिमाग से
भाव जगे, छूटें उलझन से,
कुशल-क्षेम का राग मिटे अब
मुक्ति पा लें सभी अभाव से !
मिटे नहीं जब खुद से दूरी
दिखे आवरण, उलझा आशय,
उस अनाम में अटल प्रीत हो
कदम-कदम पर मिले आश्रय !
सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार
(10-07-2020) को
"बातें–हँसी में धुली हुईं" (चर्चा अंक-3758) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है ।
…
"मीना भारद्वाज"
बहुत बहुत आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर चम्पू काव्य।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंमिटे नहीं जब खुद से दूरी
जवाब देंहटाएंदिखे आवरण, उलझा आशय,
सुन्दर कविता
स्वागत व आभार !
हटाएंउस अदृश्य अनाम से प्रीति हो जाए तो जीवन सँवर जाए . वाह
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार गिरिजा जी !
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