जरा जाग कर देखा खुद को
स्वप्न खो गए जब नींदों से
चढ़ा प्रीत का रंग गुलाल,
दौड़ व्यर्थ की मिटी जगत में
झरा हृदय से विषाद, मलाल !
द्रष्टा बन मन जगत निहारे
बना कृष्ण का योगी,अर्जुन,
कर्ता का जब बोझ उतारा
कृत्य नहीं अब बनते बन्धन !
श्वास चल रही रक्त विचरता
तन अपनी ही धुन में रमता,
क्षुधा उठाते प्राण, तृषा भी
कहाँ साक्षी कुछ भी करता !
जरा जाग कर देखा खुद को
सदा पृथक जग से पाता है,
युग-युग से यह खेल चल रहा
विवर पात सा उड़ जाता है !
वृक्ष विशाल, गगन को छूते
क्या करते वे, सब होता है,
जग यूँ ही डोलेगा कल भी
बोझ न उर पर वह ढोता है !
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 09 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर मुक्त छन्द।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत बहुत आभार !
हटाएंबोझ न उर पर वो ढोता है ... सटीक, सत्य और सामयिक बात ...
जवाब देंहटाएंशब्द जैसे झर रहे हैं जीवन दर्शन का भाव लिए ...
सुंदर प्रतिक्रिया ! स्वागत व आभार !
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