अमर स्पर्श
गतांक से आगे
आस्था और समर्पण के चरम क्षणों में कवि को अस्तित्त्व और स्वयं के मध्य जैसे कोई भेद जान नहीं पड़ता, जगत का स्वप्नवत रूप उसे प्रकट होता है और वह कह उठता है -
ओ अंतरमयि,
तुम्हारा करुणा कर ही
ध्यान बन कर
गति हीन गति से
मुझे खींचता है ।
अपने स्थान पर
मैं तुम्हें पाता हूँ ।
मन के मौन श्रृंगों पर
सुनहले क्षितिज
नव सूर्योदय की प्रतीक्षा में हैं ।
शुभ्र
अवाक्
आत्मोदय की ।
ओ विराट, चैतन्य
यह मैं क्या देखता हूँ
कि घर बाग पेड़
और मनुष्य
किसी अदृश्य पट में
चित्रित भर हैं ।
ये वास्तविक सत्य नहीं,
मोम के पुतले भर हैं ।’’
जीवन के जिन मूलभूत प्रश्नों का हल मानव सदा से खोजता रहा है, कवि पंत ने कितनी सरलता से श्रद्धा और भक्ति के भावों में उन्हें व्यक्त कर दिया है -
क्यों रहे न जीवन में सुख-दुख
क्यों जन्म-मृत्यु से चित्त विमुख?
तुम रहो दृगों के जो सम्मुख
प्रिय हो मुझको भ्रम, भय, संशय !
तन में आएँ शैशव यौवन
मन में हों विरह मिलन के व्रण,
युग स्थितियों से प्रेरित जीवन
उर रहे प्रीति में चिर तन्मय!
जो नित्य अनित्य जगत का क्रम
वह रहे, न कुछ बदले, हो कम,
हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम,
जग से परिचय, तुमसे परिणय !
तुम सुंदर से बन अति सुंदर
आओ अंतर में अंतरतर,
तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर
वरदान, पराजय हो निश्चय !
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (05-09-2020) को "शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक-3815) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बहुत आभार !
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