रविवार, नवंबर 8

झलक उसकी बरस जाती


झलक उसकी बरस जाती


कल्पना के पंख ओढ़े

उर गगन में उड़  रहा है,

कभी शीतल चंद्रमा,घन

ताप से भी जुड़ रहा है !

 

जाग कर देखे घड़ी भर

रात-दिन यूं घट रहे हैं,

जो कभी उगता न डूबा 

पूर्व-पश्चिम छल रहा है !

 

सत नहीं जो मान उसको

व्यर्थ ही मन बोझ ढोता,

जो कभी आए नहीं भय 

उन दुखों का खोज लेता !

 

स्वयं मंजिल दूर रखकर

दौड़ उसकी फिर लगाता,

पूर्ण होकर "भरूँ  कैसे ?"

मंत्र का फिर जाप करता !

 

इक खलिश की आंच दिल में 

सुगबुगा धूआँ उठाती,

प्रखर ज्वाला बन जले यदि

झलक उसकी बरस जाती !


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