एक कंकर चाहतों का
टुकड़ा-टुकड़ा जोड़ा मन
बुत इक अद्भुत बना लिया,
कभी सोया जागा कभी
कुछ स्वप्नों से सजा लिया !
दर्पण झील हुआ जब थिर
था चाँद उसमें झाँकता ,
एक कंकर चाहतों का
तिलिस्म पल में मिटा गया !
जो था नहीं, है न होगा
उसे सँवारा करता जग,
छुपा नजर के पीछे जो
खुद को उससे बचा गया !
राज क्या उनकी ख़ुशी का
राहबर बन जो मिले थे,
मिले सब यह रोग छूटा
जो पाया गुनगुना लिया !
ये मन ही न सारी खुराफातों की जड़ है । बेहतरीन लिखा है अनिता जी ।
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने संगीता जी, इसे विश्राम की ज़रूरत है, पर यह बैठना ही नहीं चाहता, स्वागत व आभार!
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-7-22) को सोशल मीडिया की रेशमी अंधियारे पक्ष वाली सुरंग" (चर्चा अंक 4488) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण है
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंभावपूर्ण रचना...👍👍👍
जवाब देंहटाएंएहसासों से सिंचित सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंअप्रतिम।
बहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाणभट्ट जी, कुसुम जी व ओंकार जी, आप सभी का स्वागत व आभार!
जवाब देंहटाएं"जो पाया गुनगुना लिया।।" वाह!
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