गुरुवार, जुलाई 28

जाग कर देखें जरा

जाग कर देखें जरा 


कैद पाखी क्यों रहे 

जब आसमां उड़ने को है,

सर्द आहें क्यों भरे 

नव गीत जब रचने को है !


सामने बहती नदी 

भला ताल बन कर क्यों पलें,

छांव शीतल जब मिली 

घनी धूप बन कर क्यों जलें !


क्षुद्र की क्यों मांग जब

महा उच्च सम्मुख हो खड़ा,

क्यों न बन दरिया बहे 

भरा प्रेम भीतर है बड़ा !


तौलने को पर मिले 

प्रतिद्वंद्विता उर क्यों भरें,

आस्था की राह पर 

शुभ मंजिलें नई तय करें !


 धुन सदा इक गूंजती  

वहाँ शोर से क्यों जग भरें,

छू रहा हर पल हमें 

पीड़ा विरहन की क्यों सहें !


जाग कर देखें जरा 

हर ओर उसकी सुलभ छटा,

प्राण बन कर साथ जो 

 भिगो मन गया बन कर घटा !


 रूप के पीछे छिपा 

सदा प्राप्य अपना हो वही,

 नाम में सबके बसा   

वही नाम जिसका है नहीं !


12 टिप्‍पणियां:

  1. क्षुद्र की क्यों मांग जब

    महा उच्च सम्मुख हो खड़ा,

    क्यों न बन दरिया बहे

    भरा प्रेम भीतर है बड़ा !
    बहुत सुंदर भाव । सराहनीय सृजन।

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  2. कैद पाखी क्यों रहे

    जब आसमां उड़ने को है,

    सर्द आहें क्यों भरे

    नव गीत जब रचने को है !
    सकारात्मकता से भरपूर रचना । लाजवाब ।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-07-2022) को   "काव्य का आधारभूत नियम छन्द"    (चर्चा अंक--4506)  पर भी होगी।
    --
    कृपया अपनी पोस्ट का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. टीप्पणी करने से पीछे क्यों रहे जब रचना सुंदर रहे!

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