जितना खुद को बाँटा जग में
जितना ‘मैं’ ‘तुझमें’ रहता है
उतने से ही मिल पाता है,
खुद की ही तलाश में हर दिल
दूजों के घर-घर जाता है !
जितना खुद को बाँटा जग में
उतने पर ही होता हक़ है,
बिन बिखरे बदली कब बनती
इसमें नहीं मेघ को शक है !
प्रियतम प्रेमी मिलने ख़ातिर
रूप हज़ारों धर लेते हैं,
खुद को मंदिरों में सजाया
खुद ही सजदे कर लेते हैं !
कोई नहीं सिवाय उसी के
जिससे तिल भर का नाता है,
भेद कभी खुल जाए जिसका
कुदरत का कण-कण भाता है !
सहज हुआ वह बंजारा फिर
बस्ती-बस्ती गीत सुनाता ,
मुक्त हो रहो बहो पवन से
सुख स्वप्नों के गाँव बसाता !
सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी!
हटाएंसराहनीय सृजन।
जवाब देंहटाएंसहज हुआ वह बंजारा फिर
जवाब देंहटाएंबस्ती-बस्ती गीत सुनाता ,
मुक्त हो रहो बहो पवन से
सुख स्वप्नों के गाँव बसाता !
.. सुंदर भावाभिव्यक्ति।