शुक्रवार, दिसंबर 23

अरूप

अरूप


वह जो अरूप है भीतर 

अकारण सुख है 

उसकी मुस्कान थिर है 

चिर बसंत छाया रहता है उसके इर्दगिर्द 

अनहद राग बजता है अहर्निश 

जगत से उपराम हुआ 

कोई उस राम से मिलता है 

किसी-किसी के हृदय में 

उसकी चाहत का फूल खिलता है 

प्रपंच से परे वह समाधि में लीन है 

जैसे हिमालय के शिखर पर शिव आसीन है 

आत्मा के अनन्त सागर में उठने वाली लहरों को ही 

निहारते हैं हम 

जो कहीं नहीं जातीं

व्यर्थ ही सिर टकराती हैं 

भँवर उठते हैं कहीं तूफान 

कहीं बहते चले आते हैं फूल 

कहीं बहाया गया उच्छिष्ट 

अनदेखा ही रह जाता है वह अनूप 

वह जो अरूप है भीतर !


6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (25-12-2022) को "अटल होते आज अगर" (चर्चा अंक-4630) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. भीतर चाहे कुरूप हो रूपवान ही लगता है ... और लग्न ज़रूरी भी है ...

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