ज्योति कमल नित नए खिलाता
वह अनंत ही, सांत बना है
भरमाता खुद को, माया से
सत्य मान जो, भ्रमित हो गया
डर जाता है, जो छाया से !
नित प्रेम जो, मोह में फँसता
सदा शांत, पर द्वेष जगाए
जीवन विमल अमृत सा बरसे,
अनजाने में गरल बनाए !
सुख की चाह सदा भरमाती
खुद से दूर चला जाता है,
अपने भीतर भर भंडारे
उर चिर तृषित छला जाता है !
जो हल्का है लघु तिनके सा
भारी भीषण हिम पर्वत सा,
दूर अति नक्षत्र अनंत सा
श्वासों से भी निकट बसा है !
जिसका होना वही जानता
बिरला कोई ही लख पाता,
गुनगुन भँवरे सा गाता है
ज्योति कमल नित नए खिलाता !
माया सच में अंत भी है और अनत भी है ...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
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