किंतु न जानूँ पथ पनघट का
पंथ निहारा, राह बुहारी
लेकिन तुम आए नहीं श्याम,
नयन बिछाए की प्रतीक्षा
बीत गए कई आठों याम !
अंतर में संसार भरा था
शायद तुम एकांत निवासी,
कहाँ बिठाती इस दुविधा से
बचा गए मुझको घनश्याम !
अब यह सूनापन भाता है
हर आहट पर हृदय धड़कता,
एक नज़र ही पा जाए मन
नहीं औरों से मुझको काम !
नगरी तेरी दूर नहीं है
किंतु न जानूँ पथ पनघट का,
जीवन की संध्या घिर आयी
कब दर्शन मिले मनोभिराम !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 23 फरवरी 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
बहुत बहुत आभार पम्मी जी!
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जवाब देंहटाएंमन में रमे श्याम तो फिर कहाँ दुनिया में लागे मन
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
https://www.youtube.com/@rawatkavitauk
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंनगरी तेरी दूर नहीं है
जवाब देंहटाएंकिंतु न जानूँ पथ पनघट का,
जीवन की संध्या घिर आयी
कब दर्शन मिले मनोभिराम !
बहुत ही सुन्दर सृजन 🙏
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति आदरणीय मेम ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सृजन
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