बुधवार, अक्तूबर 11

साक्षी

साक्षी 


जैसे दर्पण में झलक जाता है जगत 

दर्पण ज्यों का त्यों रहता है 

पहले देखती हैं आँखें

फिर मन और तब उसके पीछे ‘कोई’ 

पर वह अलिप्त है 

उस पर्दे की तरह 

जिस पर दिखायी जा रही है फ़िल्म 

पर्दा नहीं बनाता चित्र 

पर ‘वही’ बन जाता है जगत 

जैसे सागर ही लहरें बन जाए 

पर पीछे खड़ा देखता रहे 

उठना-गिरना लहरों का   

मन भी दिखाता है एक दुनिया 

विचारों, भावनाओं की 

पर उससे निर्लिप्त नहीं रह पाता 

यही तो माया है !


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