कब खुलता यहाँ द्वार तेरा
दिल में ढेरों लिए कामना
जब कोई याचक आता है,
‘मैं’ पा लूँगा परम शक्ति से
स्वयं को वही भरमाता है !
तब तक नहीं खुला करता है
द्वार सदा जो खुला हुआ है,
जब ख़ाली हो मन हर शै से
तत्क्षण प्रियतम मिला हुआ है !
‘तू’ कहकर जब ढूँढा उसको
‘मैं’ भी संग हुआ छलता है,
उसके सिवा न कोई जग में
सत्य प्रकट पल-पल करता है
तम से ढका हुआ मन भारी
बुद्धि चंचला दौड़ लगाये,
सत के पार विचरता है जो
कैसे उसकी आहट आये !
एक ही रस्ता एक उपाय
अर्पण कर सब रहें अमानी,
जिसने कुछ न चाहा जग में
‘स्वयं’ की महिमा उसने जानी !
"मैं" में निहित है आत्ममुग्धता,
जवाब देंहटाएंसर्वस्व समर्पण ही आत्मशुचिता
पाने-खोने की लालसा,मृगतृष्णा
बंधहीन हो,मन रे त्याग मनोरुग्णता।
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बहुत सुंदर रचना अनिता जी।
सस्नेह।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २७ फरवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
कितने सुंदर शब्दों में समेटा है आपने कविता के भाव को, बहुत बहुत आभार श्वेता जी !
हटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अरुण जी
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंवाह वाह सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार विमल जी !
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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