अस्तित्त्व और हम
जब सौंप दिया है स्वयं को
अस्तित्त्व के हाथों में
तब भय कैसा ?
जब चल पड़े हैं
कदम उस पथ पर
उस तक जाता है जो
तो संशय कैसा ?
जब बो दिया है बीज प्रेम का
अंतर में उसने ही
तो उसके खिलने में देरी कैसी ?
जब भीतर उतर आये हैं
शांति के कैलाश
तो गंगा के अवतरण पर
भीगने से संकोच कैसा ?
अपना अधिकार लेने में
यह झिझक क्यों है
हम उसी के हैं, और वही
हम बनकर जगत में आया है
जब जान लिया है या सत्य
तब यह नाटक कैसा ?
उसी को खिलने दो
बढ़ने दो
कहने दो
अब अपनी बात चलाने का
यह आग्रह कैसा ?
डूब जाओ
उसके असीम प्रेम में
किसी तरह
वह यही तो चाहता है
फिर उससे भिन्न होने का
भ्रम कैसा ?