मंगलवार, नवंबर 5

अस्तित्त्व और हम

अस्तित्त्व और हम 


जब सौंप दिया है स्वयं को 

अस्तित्त्व के हाथों में 

तब भय कैसा ?

जब चल पड़े हैं 

कदम उस पथ पर

उस तक जाता है जो 

तो संशय कैसा  ?

जब बो दिया है बीज प्रेम का  

अंतर में उसने ही 

तो उसके खिलने में देरी कैसी  ?

जब भीतर उतर आये हैं 

शांति के कैलाश 

तो गंगा के अवतरण पर 

भीगने से संकोच कैसा  ?

अपना अधिकार लेने में

 यह झिझक क्यों है 

हम उसी के हैं, और वही 

हम बनकर जगत में आया है 

जब जान लिया है या सत्य 

तब यह नाटक कैसा  ?

उसी को खिलने दो 

बढ़ने दो 

कहने दो 

अब अपनी बात चलाने का 

यह आग्रह कैसा  ?

डूब जाओ 

उसके असीम प्रेम में 

किसी तरह 

वह यही तो चाहता है 

फिर उससे भिन्न होने का 

भ्रम कैसा ? 


रविवार, नवंबर 3

शांतता

शांतता 


आज हम थे और सन्नाटा था 

सन्नाटा ! जो चारों और फैला था 

बहा आ रहा था न जाने कहाँ से 

अंतरिक्ष भी छोटा पड़ गया था जैसे 

शायद अनंत की बाहों से झरता था !


आज मौन था और थी चुप्पी घनी 

सब सुन लिया जबकि 

कोई कुछ कहता न था 

कैसी शांति और निस्तब्धता थी उस घड़ी 

जैसे श्वास भी आने से कंपता था!


 कोई बसता है उस नीरवता में भी

उससे मिलना हो तो चुप को ओढ़ना होगा 

छोड़कर सारी चहल-पहल रस्तों की 

मन को खामोशी में इंतज़ार करना होगा 

यह जो आदत है पुरानी उसकी 

बेवजह शोर मचाने की 

छोड़ कर बैठ रहे पल दो पल 

 उस एकांत से मिल पायेगा तभी !