जब हम बनारस में थे एक बार सारनाथ जाने का कार्यक्रम बना पर किसी कारण वश सफल नहीं हो पाया तब मैंने यह कविता लिखी थी.
यदि हम गए होते सारनाथ
झड़ गया होता
मन का हल्का सा भी तनाव
हरे पेड़ों की छाँव में,
वह नीला गगन
याद दिलाता अनंत की
और कुलांचे भरते हिरण
कैसी पुलक न भर देते मन प्राणों में
वे ऊँचे स्तूप बने है जिसकी याद में
उसकी सौम्य मूर्ति
भीतर तक एक शांति और ठहराव को जन्म देती
कतारें दीपकों की
अंतर को सुवासित करतीं
यदि हम गए होते सारनाथ....
भूल जाते कुछ पल के लिये
ओढ़ी हुई उपाधियाँ
प्रकृति के सान्निध्य में
बच्चे न बन जाते....
बेहतरीन पंक्तियाँ ! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंसंजय जी, बहुत बहुत आभार !
हटाएंसुन्दर!
जवाब देंहटाएंयह कविता पढ़ते ही मन में ये भाव प्रबलता से पुनः जाग उठे कि काश! गए होते सारनाथ...
वाराणसी में ६-७ वर्ष रहे बी.एच .यू में पढ़ाई के दौरान लेकिन कभी कार्यक्रम नहीं बन पाया सारनाथ का:(
अनुपमा जी, बहुत आश्चर्य की बात है कि छह सात वर्ष आप बनारस में रहीं और सारनाथ नहीं गयीं, अगली बार भारत आने पर अवश्य जाएँ.
हटाएंaapki yah manokamna jaroor poori hogi .aabhar
जवाब देंहटाएंशिखा जी, शुक्रिया, बनारस में कालेज के दिनों में रह चुकी हूँ, ससुराल भी वहीं है, सो पहले सारनाथ कई बार गयी हूँ लेकिन इस बार काफ़ी अरसे बाद हम जाने वाले थे. बहुत सुंदर स्थल है.
हटाएंओढ़ी उपाधियाँ भूल कर... बच्चा बनना... वाह!
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना...
सादर
संजय जी, बच्चा बनना कितना आह्लादकारी होता है यह तो कोई बन कर ही जान सकता है...आभार!
हटाएंवाकई बहुत खूबसूरत जगह है .....आभार !
जवाब देंहटाएंजरूर आपने देखी है, बहुत शांत भी है.
हटाएंवाह ... कविता के माध्यम से सार नाथ के दर्शन हो गए ...
जवाब देंहटाएंओहो.. साक्षात् दर्शन...
जवाब देंहटाएंहम तो बनारस के नजदीक जाकर भी बनरस ही नहीं जा पाए ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएं