नहीं, अब और नहीं
अब त्रिशंकु नहीं रहेंगे हम
अधर में लटके
बीसवीं मंजिल पर.
बंद कमरों में कैद
हम जायेंगे जमीन पर
धरा की गोद में एक आशियाना बनाएंगे....
चाँदनी रातों को सोयेंगे
खुले गगन के नीचे
अमावस को ओढ़ेंगे तारों की चादर
नहीं, हमें नहीं खोलना डरते हुए द्वार
अतिथि के लिये
द्वार की आँख से झांक कर
हम घर के बाहर चबूतरे पर खुले में बतियाएंगे...
धूप को नहीं तरसेंगे
छोटी सी बालकनी में
अपने आंगन में धान सुखायेंगे
नींबू, अमरुद और बेर की झाडियों पर
जब पकेंगे फल, उनकी
मदमस्त गंध में डूबेंगे उतरायेंगे
गिलहरियों की आंखमिचौली देखते
हमारे दिन संझियारे हो जायेंगे
नहीं हमें नहीं रहना
नकाब पहने, धूल और धुएं से घिरे
नहीं ठूंसना हमें अँगुलियों को कानों में
कर्णभेदी शोर को सुन के
हम तो कोयल के साथ आल्हा गुनगुनायेंगे
पालीथीन बैग में लाए नहीं
घर की फुलवारी से तोड़
चढ़ाएंगे मंदिर में फूल
डालेंगे पेड़ की सबसे ऊँची डाल पर झूला
और सँग हवा के
आकाश तक हो आयेगे
कच्चे फर्श पर जब बरसात में
चला आयेगा कोई केंचुआ
सांप कहकर दादी को डराएंगे
नहीं खाना हमें डब्बा बंद खाना
हम रोज ताजा ही बनाएंगे
जमीन से आती खुशबू को समेटे
दिन दोपहरी चटाई पर ही सो जायेंगे
नहीं बनना हमें त्रिशंकु
हम धरती पर ही भले..
वाह वाह बेहतरीन नारकीय सा ये नगरीय जीवन और प्रकृति की मनमोहक छाया के बिच की तुलना शानदार और बेहतरीन है......हैट्स ऑफ इसके लिए।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत भाव .... पर ज़मीन पर आशियाना बनाने ले लिए जगह ही कहाँ बची है ... मंज़िलों में कैद हो गयी है ज़िंदगी ॥
जवाब देंहटाएंवाह अनीता जी......
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर...मिट्टी की सौंधी महक आ रही है आपकी कविता से.....
ह्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म..........
भीनी भीनी.............
सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंआभार ।।
मिट्टी की महक सी सुन्दर मनोहारी कविता!
जवाब देंहटाएंzameen par rah uski har cheez se jude rahne ka apna hi zindgi jine ka ek maja hai. bahut acchhi prastuti.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर, मेरे दिल का दर्द आपने शब्दों मे उतार दिया लेकिन "शायद" कोई उपाय नहीं है हमे त्रिशंकु बन कर ही रहना होगा।
जवाब देंहटाएंनिलेश जी, बहुत दिनों बाद आपकी दस्तक इस ब्लॉग पर पड़ी है, आपको याद हो या न सबसे पहली पोस्ट जब इस ब्लॉग पर आयी थी आपने टिप्पणी की थी, शुक्रिया.. उपाय तो अब भी है पर थोड़े से कष्ट उठाने होंगे..गाँव बुला रहे हैं जब चाहे वहाँ जाएँ...चाहे कुछ दिनों के लिये ही सही, कभी कभी ही सही.
हटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंExcellent...Keep it up
जवाब देंहटाएंसंगीता स्वरुप ( गीत ) ने आपकी पोस्ट " नहीं, अब और नहीं " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत भाव .... पर ज़मीन पर आशियाना बनाने ले लिए जगह ही कहाँ बची है ... मंज़िलों में कैद हो गयी है ज़िंदगी ॥
इस ब्लॉग के लिए टिप्पणियों को मॉडरेट करें.
संगीता स्वरुप ( गीत ) द्वारा मन पाए विश्राम जहाँ के लिए 27 अप्रैल 2012 2:40 pm को पोस्ट किया गया
संगीता जी, जमीन से जुड़ने की ख्वाहिश बनी रहे तो मौके भी मिलेंगे.
हटाएंधरती पर हों जिनके पांव, मिले उन्हें ही भगवान।
जवाब देंहटाएंवाह ! सुंदर विचार!
हटाएंजमीन से आती खुशबू को समेटे
जवाब देंहटाएंदिन दोपहरी चटाई पर ही सो जायेंगे
नहीं बनना हमें त्रिशंकु
हम धरती पर ही भले..
कामना तो सुंदर है परन्तु अब जमीन की खुशबू दुरूह होती जा रही है छोटे शहरों में भी और हम त्रिशंकु बनने पर मजबूर होते जा रहे हैं.
रचना जी, आपने सही कहा है, लेकिन हमें प्रयास तो जारी रखना होगा.
हटाएं