एक अनोखा खेल चल रहा
बड़े प्रेम से कोई छल रहा
खोजने व्यर्थ को जब दौड़ते फिरे हम
सार्थक घर आने को बेताब ही था
राह तकते जिसकी बिछाए रहे पलकें
आने वाला वह आया ही हुआ था
हजारों खत न जिसे भेजे होंगे
परदेश वह कभी गया ही नहीं था
याद कर करके जिसे थकते नहीं
दिल ने उसे भुलाया ही कब था
मांगी मनौतियां विनतियाँ भेजीं
हाले दिल उससे छिपा ही न था
पुकारें किसे राह निहारें किसकी
वहाँ कभी कोई दूसरा नहीं था
वाह.............
जवाब देंहटाएंयाद कर करके जिसे थकते नहीं
दिल ने उसे भुलाया ही कब था
बहुत बढ़िया...
सुन्दर कविता, भाव भरे शब्दों के साथ
जवाब देंहटाएंपुकारें किसे राह निहारें किसकी
जवाब देंहटाएंवहाँ कभी कोई दूसरा नहीं था
...बहुत गहन और सुन्दर प्रस्तुति...आभार
वाह वाह.....वो तो कभी दूर ही न था हम ही भटका किये ।
जवाब देंहटाएंइस खेल में हम बार-बार छले ही तो जाते हैं। फिर भी इस खेल में जुटे हैं।
जवाब देंहटाएंमनोज जी, यह खेल लुभाता जो है, पर इसकी चमक बस ऊपरी ही है, एक बार इसकी असलियत का पता चल जाये तो यह अपने वास्तविक रूप में आ जाता है और तब इसकी चमक और भी बढ़ जाती है.
हटाएंexpression ने आपकी पोस्ट " एक अनोखा खेल चल रहा बड़े प्रेम से कोई छल रहा " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंवाह.............
याद कर करके जिसे थकते नहीं
दिल ने उसे भुलाया ही कब था
बहुत बढ़िया...
निशब्द....
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