रविवार, अप्रैल 15

यदि हम गए होते सारनाथ



जब हम बनारस में थे एक बार सारनाथ जाने का कार्यक्रम बना पर किसी कारण वश सफल नहीं हो पाया तब मैंने यह कविता लिखी थी.

यदि हम गए होते सारनाथ

झड़ गया होता
मन का हल्का सा भी तनाव
हरे पेड़ों की छाँव में,

वह नीला गगन
याद दिलाता अनंत की
और कुलांचे भरते हिरण
कैसी पुलक न भर देते मन प्राणों में

वे ऊँचे स्तूप बने है जिसकी याद में
उसकी सौम्य मूर्ति
भीतर तक एक शांति और ठहराव को जन्म देती
कतारें दीपकों की
अंतर को सुवासित करतीं

यदि हम गए होते सारनाथ....

भूल जाते कुछ पल के लिये
ओढ़ी हुई उपाधियाँ
प्रकृति के सान्निध्य में
बच्चे न बन जाते....

14 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन पंक्तियाँ ! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !

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  2. सुन्दर!
    यह कविता पढ़ते ही मन में ये भाव प्रबलता से पुनः जाग उठे कि काश! गए होते सारनाथ...
    वाराणसी में ६-७ वर्ष रहे बी.एच .यू में पढ़ाई के दौरान लेकिन कभी कार्यक्रम नहीं बन पाया सारनाथ का:(

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    1. अनुपमा जी, बहुत आश्चर्य की बात है कि छह सात वर्ष आप बनारस में रहीं और सारनाथ नहीं गयीं, अगली बार भारत आने पर अवश्य जाएँ.

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  3. उत्तर
    1. शिखा जी, शुक्रिया, बनारस में कालेज के दिनों में रह चुकी हूँ, ससुराल भी वहीं है, सो पहले सारनाथ कई बार गयी हूँ लेकिन इस बार काफ़ी अरसे बाद हम जाने वाले थे. बहुत सुंदर स्थल है.

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  4. ओढ़ी उपाधियाँ भूल कर... बच्चा बनना... वाह!
    सुंदर रचना...
    सादर

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    1. संजय जी, बच्चा बनना कितना आह्लादकारी होता है यह तो कोई बन कर ही जान सकता है...आभार!

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  5. वाकई बहुत खूबसूरत जगह है .....आभार !

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  6. वाह ... कविता के माध्यम से सार नाथ के दर्शन हो गए ...

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  7. हम तो बनारस के नजदीक जाकर भी बनरस ही नहीं जा पाए ।

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