किशोर कुमार खोरेन्द्र की कवितायें- खामोश ख़ामोशी और हम में
रायपुर छत्तीसगढ़ के
निवासी, स्टेट बैंक के सेवानिवृत्त अधिकारी किशोर जी की कवितायें प्रेम, प्रकृति,
स्मृतियों और समर्पण के ताने-बाने से बुनी गयी हैं. साकार और निराकार के सारे भेद
वहाँ समाप्त होते लगते हैं और प्रकृति कब मानवी का रूप धर लेती है, नायिका कब
प्रकृति का कोई रूप बन जाती है, देखते ही बनता है. कविताओं का मूल स्वर समर्पण है.
कवि स्वयं को नेपथ्य में रखकर अपनी सारी भावनाएँ अस्तित्त्व को समर्पित करता है,
इस संकलन में कवि की दस कवितायें हैं.
पहले किशोर जी का
परिचय उन्हीं के शब्दों में-
...
तलाश रहे हो जिसे वह
मैं ही हूँ
कहती है चाँदनी
कण कण से पहाड़ों तक
का
मैं बनी हूँ शुभ्र
आवरण
...
मौन के इस जंगल में
मैं हूँ अकेला
कभी नदी का जल
कभी सागर का तट
बन जाते हैं मेरे
लिये दर्पण .
..
कभी लगता है तन और
मन से
परे...अस्तित्त्व
मेरा..
वन के एकांत में
करता है विचरण
इनकी पहली कविता जिसका
शीर्षक है- तुम्हारा स्मरण चिरंतन तथा प्रेम कथा का सारांश अमूर्त प्रेम को व्यक्त
करती हैं.
तुम पर लिखी कविता
कभी नहीं हो पाती है
पूरी
न तुम्हारा सौंदर्य
का कर पता हूँ सम्पूर्ण वर्णन
...
ध्यान में तल्लीन हो
मैं कर चुका हूँ
तुम्हारी काल्पनिक
छवि के सम्मुख
खुद का समर्पण
तुम प्रज्वलित वह
ज्योति हो
जिसे मैं शलभ सा कर
चुका हूँ
स्वभावतः वरण
प्रेम कथा का सारांश
वियोग ही है
प्रेम कथा का सारांश
.... ...
आइने के भीतर का हो
तुम प्रतिबिम्ब
या
जल में उभर आयी
एक हो परछाई
....
बिना किसी पर
न्योछावर हुए
मन को नहीं मिल पता
है करार
गूंजती हो मेरे मन के प्रांगण कवि की दूसरी कविता है जिसमें प्रेम की अलौकिक
अनुभूति का चित्रण हुआ है
तुमसे मिले बिना
मैं कर लिया करता हूँ
तुमसे काल्पनिक
संवाद
मैं तुम्हारे लिये
हूँ एक सुखद अपवाद
.. ..
कभी उद्गम से बहती
हुई आती हो
नदी का प्रवाह बन
....
कभी मील का पत्थर सा
मेरी
प्रतीक्षा करती सी
लगती हो
जीकर
सदियों पुराने एकांत
का सूनापन
मंदिर की घंटियों के
स्वर सा
गूंजती हो मेरे मन
के प्रांगण
अपना सर्वस्व तुम्हें अर्पण नामक
कविता में कवि अस्तित्त्व में घुल कर एक हो जाना चाहता है
मैंने कर दिया है
अपना सर्वस्व
तुम्हें अर्पण
मेरे पास अब
न रूप है, न मन
...
मुझे भाने लगे हैं
तुम्हारे स्मरणों के पवित्र चरण
पड़ा रहता हूँ वहीं पर
होऊं जैसे-
ढेरों अर्पित
सुगन्धित शुष्क सुमन
...
टूट कर मैं पर्वत
तुम नदी में घुल गया
मुझे ढूढने के लिये
बचा नहीं एक भी कण
पता नहीं इसका क्या है कारण कविता में कवि नायिका से उसके मौन का कारण पूछता है
मौनव्रत किया है
तुमने धारण
पता नहीं इसका क्या
है कारण
प्यार करने के लए
कुछ शब्दों का ही तो
करना पड़ता है
उच्चारण
.. ..
... ..
तुम एक मात्र हो
मेरी
परन्तु सच्ची पाठिका
मैं धरती पर पसरा
हुआ एक जलाशय
तुम दूर अंबर पर
जैसे
स्थित एक हो एक
तारिका
मौनव्रत किया है
तुमने धारण
पता नहीं इसका क्या
है कारण
सुन लो मेरा स्पंदन और सौभाग्यशाली हैं वे नामक कविताओं में कवि
स्मृतियों में अपना जीवन खोजता है, एक ओर वह नायिका को याद करता है साथ ही याद
किया जाना भी चाहता है
तुम्हारा स्मरण
ही है अब मेरा जीवन
तुम्हारी मुस्कराहट
की बाहें
घेर लेती हैं मुझे
मधुर लगता है मुझे
उसका काल्पनिक बंधन
तुम हो सुमन
इसलिये तो कर रहा है
मैं मधुप तुम्हरे
समक्ष गुंजन
सुन लो मेरा स्पंदन
रहूँ तुम्हारे
ख्यालों में
मैं पल हर
समुद्र भी लगे
तुम्हें मुझसा
छू ले तुम्हें मेरी
उंगलियों सा
उसकी लहर
...
जब लगे मंझधार में
तुम्हें अपना सूनापन
तब ठंडी हवा के
झोंके सा मुझे महसूस कर लेना
...
सौभाग्यशाली हैं वे
जिन्हें कोई याद
करता है
जीता है सिर्फ जिसके
लिये
वह आजीवन
क्रमशः
बढ़िया समीक्षा..आभार
जवाब देंहटाएंbahut achchhi prastuti .aabhar .
जवाब देंहटाएं<a href="http://www.facebook.com/BHARTIYNARI>भारतीय नारी </a>
शिखा जी, आभार
हटाएंकिशोर कुमार खोरेन्द्र जी से सुन्दर परिचय करवाया है..उनको पढ़ना अच्छा लगा..आपका आभार.
जवाब देंहटाएंकिशोर जी की रचनों से परिचय बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंआभार अनीता जी इस श्रंखला के लिये.
रचना जी, आभार, आशा है आगे भी आप इस श्रंखला से जुड़ी रहेंगी.
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