अब पुनःरुक्त नहीं होना है
पूछ रहा है पता ठिकाना
भीतर अपनी याद खो गयी,
उन्हीं रास्तों पर चलता है
खुले नयन, पर दृष्टि सो गयी !
साँझ-सवेरे भी बदलेंगे
बीज अलख का इक बोना है,
सतत् प्रयाण रहे चलता
अब पुनःरुक्त नहीं होना है !
सिंचन प्रतिपल नव कुसुमों का
छिपे हुए जो अभी धरा में,
मानस-भू पाषाण बनी जो
पिघलेगी ही सघन त्वरा में !
मन से ऊपर, परे भाव से
इक जोगी वाला डेरा है,
वहाँ न श्याम रात का साया
हर पल ही नया सवेरा है !
सिंचन प्रतिपल नव कुसुमों का
जवाब देंहटाएंछिपे हुए जो अभी धरा में,
मानस-भू पाषाण बनी जो
पिघलेगी ही सघन त्वरा में !
वाह ... बहुत सुंदर ।
सुन्दर.....
जवाब देंहटाएंगहन भाव....
सादर
अनु
गहन भाव लिए सुन्दर रचना..आभार
जवाब देंहटाएंइक जोगी वाला डेरा है,
जवाब देंहटाएंवहाँ न श्याम रात का साया
हर पल ही नया सवेरा है
बहुत सुंदर प्रस्तुति .....!!
मन से ऊपर, परे भाव से
जवाब देंहटाएंइक जोगी वाला डेरा है,
वहाँ न श्याम रात का साया
हर पल ही नया सवेरा है !
बहुत बहुत सुन्दर।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंlatest post केदारनाथ में प्रलय (भाग १)
असंजस की स्थिति में जब कोई चिंतन मनन होता है ..कामयाबी वाली राह कोई अलग सी निकलती है।
जवाब देंहटाएंकल 11/07/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
आभार यशवंत जी !
हटाएं
जवाब देंहटाएंवाह . बहुत उम्दा
'मन से ऊपर, परे भाव से
जवाब देंहटाएंइक जोगी वाला डेरा है,
वहाँ न श्याम रात का साया
हर पल ही नया सवेरा है !'
So well put!!!
संगीता जी, अनुपमा जी, रोहितास जी, इमरान, मदन जी, रंजना जी, माहेश्वरी जी, अनु जी आप सभी का स्वागत व आभार!
जवाब देंहटाएं