बुधवार, फ़रवरी 26

मिल गयी चाबी

मिल गयी चाबी


रात अँधेरी और घनेरी 

घर का रस्ता भूल गया वह,

दूर कहीं आवाज़ भयानक, 

भटक रहा भयभीत हुआ वह !


टप टप बूँदें, पवन जोर से 

ठंड हड्डियों को कंपाती,

तभी अचानक बिजली चमकी

इक दरवाज़ा  पड़ा  दिखाई !


​​झटपट पहुँचा द्वार खोलने, 

ताला जिस पर लटक रहा था,

सारी जेबें ली टटोल पर

चाबी कहीं गुमा आया था !


खड़ा रुआँसा भीगा, भूखा, 

याद आ रही कोमल शैया,

निद्रा-क्षुधा दोनों सताती, 

लेकिन वह था मजबूर बड़ा !


आसमान को तक के बोला 

तुम्हीं सहायक अब बन सकते,

तभी हाथ कंधे पर आया,

मित्र पूछता, क्या दे सकते?


खुशी और अचरज से बोला 

खोल द्वार चाहे जो माँगो,

तुरत घुमाई उसने चाबी

ला भीतर बोला, अब जागो !


मन ही तो वह भटका राही, 

द्वार आत्मा पर जो आता

बोध सखा स्वरूप  में आकर, 

बस पल में भीतर ले जाता I


मन पाता विश्राम जहाँ पर,

घर अपना वह सुंदर कितना

मिल गयी चाबी पाया तोष, 

‘हो’ होना चाहे फिर जितना I




2 टिप्‍पणियां:

  1. मन ही तो वह भटका राही, द्वार आत्मा पर जो आता
    ज्ञान मित्र रूप में आकर, बस पल में भीतर ले जाता I

    सुंदर पंक्तियां...

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  2. वाह ! वाह ! अति सुन्दर बिम्ब...... ज्ञान रुपी मित्र ही चाबी है .... वाह

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