शुक्रवार, दिसंबर 12

इक अकुलाहट प्राणों में

इक अकुलाहट प्राणों में


इक दर्द की चाहत की है
जो मन को बेसुध कर दे,
कुछ कहने, कुछ न कहने
दोनों का अंतर भर दे !

इक पीड़ा मांगी उर ने
जो भीतर तक छा जाये,
फिर वह सब जो आतुर
है, आने को बाहर आये !

इक बेचैनी सी हर पल
मन में सुगबुग करती हो,
इस रीते अंतर्मन का
कुछ खालीपन भरती हो !

इक अकुलाहट प्राणों में
इक प्यास हृदय में जागे,
सीधे सपाट मरुथल में
चंचल हरिणी सी भागे !


13 टिप्‍पणियां:

  1. दर्द में ही अपने होने का अहसास होता है और किसी के होने का भी...अति सुन्दर कहा है..

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    1. अमृता जी, बहुत दिनों के बाद आपका आगमन हुआ है...स्वागत व आभार !

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  2. क्षमा याचना...आपकी लिखी रचना शनिवार 13 दिसंबर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  3. छयावादी स्वर-लहरी की गूँज सुनाई दे रही है 1

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  4. जीवन-दर्शन का मार्ग भी तो यही है. सुन्दर रचना.

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  5. बहुत सुंदर बिम्ब भाव रचना भाव संसार।

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  6. राजीव जी, निहार जी, वीरू भाई, मईड़ा जी, शांति जी, ओंकार जी, आप सभी का स्वागत व आभार !

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