मंगलवार, दिसंबर 8

कविता

कविता

कविता किसी झरने की भांति
सिमटी रहती है गहन कन्दराओं में
और फिर एकाएक फूट पड़ती है झरझर
या फिर बादलों में बूंद बन कर
फिर बरस पड़ती है शीतल फुहार बनकर
बीज बन रहती है मन की माटी में
छुपी रहती है पादप में रुत आने तक
फूल सी एक दिन खिल उठती है
कब आएगी उसकी खबर केवल
अस्तित्त्व को होती है...

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