सर्दियों की धूप 
धूप कहाँ है 
चलो उसे ढूँढ़ते हैं
भिनसार में आती है सोने वाले कमरे की खिड़की  से 
और दीवार पर एक चमकता हुआ रौशनी का टीका भर लगाती है 
जब पिछले बरामदे से है झाँकता है बाल सूर्य 
कुछ देर बाद धरा घूम जाती है जब 
पूजा के कमरे की खिड़की से छन छन कर आती है
नीला कारपेट चमकने लगता है धूप में
वह चाहती है पल भर धूप में बैठना 
पर सुबह का वक्त होता है भाग-दौड़ का 
दोपहर को धूप कुछ देर ही आती है पीछे वाली खिड़की से 
फर्श पर बन जाता है आायताकार
उसमें बैठना हो तो बैठे कोई सिकोड़ कर बदन 
शाम होने से पहले ही सूरज बढ़ गया होता है आगे 
घर की किसी खिड़की दरवाजे तक उसकी पहुँच नहीं
तब बाहर निकल आती है वह
तब बाहर निकल आती है वह
जहाँ पूरे लॉन में बिछी है धूप नर्म चादर की तरह 
चाहो तो सो जाओ  
या ओढ़ लो  नर्म दुलाई की तरह !

 
जितनी देर में ओढने का उपक्रम करेंगे वह और सिमट जायेगी ,ऐसी है सर्दी की धूप .
जवाब देंहटाएंसही कहा है अपने प्रतिभा जी, बड़ी जल्दी भाग जाती है सर्दियों की धूप..
हटाएंआज कल तो इस धुप की चादर की जरूरत और बढ़ गयी है ...
जवाब देंहटाएंनर्म धूप की सुहानी रचना ....
स्वागत व आभार दिगम्बर जी..
हटाएंसच में , सर्दियों में जैसे धूप में ही प्राण बस जाता है ।
जवाब देंहटाएं