लौट आना है उसे घर
घूम कर सारा जहाँ
लौट आना है उसे घर,
गंगोत्री से उमगी धारा
जा पहुँची जो गंगा सागर !
हुई वाष्पित उडी गगन में
बरसी जा पहुँची शिखरों पर,
पिघली, बही पुनः लौटी
यही चक्र चलता है अविरत !
कुछ बूंदें रह गयीं जमीं ही
कुछ ने सागर को घर माना,
वंचित हैं बहने के सुख से
नीलगगन का सुख न जाना !
एक यात्रा अनजानी सी
शेष सभी तय करती हैं,
काट पत्थरों, चट्टानों को
गहन गुफाओं में बहती हैं !
तपकर सोख ऊष्मा रवि की
मीलों चलकर मिलतीं घन से,
सृष्टि चक्र अनोखा कितना
चले अहर्निश युगों-युगों से !
आपकी इस प्रस्तुति की लिंक 26-01-2017को चर्चा मंच पर चर्चा - 2585 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत बहुत आभार दिलबाग जी..
हटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन - राष्ट्रीय मतदाता दिवस और राष्ट्रपति का सन्देश में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी ! अपने सदा इस ब्लॉग का मान बढ़ाया है.
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मालती जी !
हटाएंसच ! सृष्टि चक्र अनोखा कितना ।
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