सोमवार, जुलाई 23

पावन प्रीत पुलक सावन की



पावन प्रीत पुलक सावन की

कितने ही अहसास अनोखे
कितने बिसरे ख्वाब छिपे हैं,
खोल दराजें मन की देखें
अनगिन जहाँ सबाब छिपे हैं !

ऊपर-ऊपर उथला है जल
कदम-कदम पर फिसलन भी है,
नहीं मिला करते हैं मोती
इन परतों में दलदल भी है !

थोड़ा सा खंगालें उर को
जाल बिछाएं भीतर जाकर,
चलें खोजने सीप सुनहरे
नाव उतारें बचपन पाकर !

पावन प्रीत पुलक सावन की
या फिर कोई दीप जला हो,
गहराई में उगता जीवन
नीरव वन में पुहुप खिला हो !

अम्बर से जो नीर बरसता
गहरे जाकर ही उठता है,
कल का सूरज जो लायेगा
वही उजास आज झरता है !  




6 टिप्‍पणियां:

  1. मोती खोजने के लिए तो गहरे ही उतरना होता है ... इस दलदल को पार करना होता है ... कल का सूरज आज की ज़मीन पे ही उग सकता है ...
    बहुत सुंदर रचना है ...

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  2. स्वागत व आभार अनुराधा जी !

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  3. वाह , प्रभावशाली अभिव्यक्ति ! बधाई आपकी कलम को अनीता जी

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