शनिवार, जुलाई 7

चाह जो उस की जगी तो



चाह जो उस की जगी तो



राह कितनी भी कठिन हो
दूब सी श्यामल बनेगी,
चाह जो उस की जगी तो
उर कली इक दिन खिलेगी !

जल रहा हर कण धरा का
अनुतप्त हैं रवि रश्मियाँ,
एक शीतल परस कोमल
ताप हरता हर पुहुप का  !

लख नहीं पाते नयन जो
किन्तु जो सब देखता है,
जगी बिसरी याद जिसमें
मन वही बस चेतता है !

व्यर्थ न कण भर भी जग में
अर्थ उसमें कौन भरता,
नयन रोते, अधर हँसते
राज जब खुल रहा लगता !

एक कोमल छांव पल-पल
श्वास में आलोक भरती,
बांह थामे आस्था इक
हर कदम पर साथ देती !

7 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ... आस्था से प्रेम उपजता है और प्रेम से आस्था और दोनों साथ साथ चलते हैं ...
    बहुत सुंदर रचना है ...

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  2. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ०९ जुलाई २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।



    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति मेरा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'



    विशेष : हम चाहते हैं आदरणीय रोली अभिलाषा जी को उनके प्रथम पुस्तक प्रकाशन हेतु आपसभी लोकतंत्र संवाद मंच पर अपने आगमन के साथ उन्हें प्रोत्साहन व स्नेह प्रदान करें। 'एकलव्य'

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