शुक्रवार, मार्च 22

झर-झर झरता वह उजास सा


झर-झर झरता वह उजास सा 

कोई पल-पल भेज सँदेसे 
देता आमन्त्रण घर आओ
कब तक यहाँ वहाँ भटकोगे 
मस्त हो रहो, झूमो, गाओ !

कभी लुभाता सुना रागिनी 
कभी ज्योति की पाती भेजे
पुलक किरण बन अनजानी सी 
कण-कण मन का परस सहेजे !

कभी मौन हो गहन शून्य सा 
विस्तृत हो फैले अम्बर सा
वह अनन्ता अनंत  हृदय को 
हर लेता सुंदर मंजर सा ! 

स्मरण चाशनी घुलती जाये  
भीग उठे उर अंतर सारा
पोर-पोर में हुआ प्रकम्पन 
देखो, किसी ने पुनः पुकारा ! 

झर-झर झरता वह उजास सा 
बरसे हिमकण के फाहों सा,
बहता बन कर गंगधार फिर 
महके चन्दन की राहों सा ! 

कोई अपना आस लगाये 
आतुर है हम कब घर जाएँ
तज के रोना और सिसकना 
सँग हो उसके बस मुस्काएं !  

6 टिप्‍पणियां:

  1. स्मरण चाशनी घुलती जाये
    भीग उठे उर अंतर सारा,
    पोर-पोर में हुआ प्रकम्पन
    देखो, किसी ने पुनः पुकारा !
    अपनों का साथ ....अपनो की यादें...
    बहुत ही लाजवाब रचना....
    वाह!!!

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  2. मन की पुकार इस प्रसन्नता के आलम को कई कई गुना बढ़ा देती है ... अंतस की आवाज़ ले जाती है उस अनंत के पास जहाँ बस प्रकाश ही प्रकाश रहता है ... सुन्दर उन्मुक्त भाव संजोये सुन्दर रचना ...

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    1. वाह ! कविता के भावों को आत्मसात करती हुई टिप्पणी...आभार !

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  3. अद्भुत...बहुत सुन्दर और सारगर्भित प्रस्तुति...

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