मंजिल पर ही बैठ मुसाफिर
कहाँ गए ? थे हवामहल ही
कहाँ गया वह लक्ष्य साधता,
मंजिल पर ही बैठ मुसाफिर
पूछा करता था जो रस्ता !
नहीं मिला जब खोजा मन ने
मेधा ने भी जोर लगाया,
थके हार जब बैठे दोनों
खुद को मंजिल पर ही पाया !
नहीं घटा कुछ जहाँ कभी भी
ऐसा एक शून्य पलता है,
जहाँ उगा है निशदिन राका
सूरज कभी नहीं ढलता है !
यह भी बस कहने में आता
इक छोड़ नहीं दूजा कोई,
एक अनोखी भोर हुई है
अंतर जिसकी सुरति समोई !
जहाँ न इक स्पंदन भी घटता
उसी में सृष्टि बनी, बिगड़ती,
जहाँ कभी कुछ हुआ न होगा
माया कैसे रूपक गढ़ती !
उस अनाम से फलित सदा हो
स्वयं का ही दर्शन स्वयं को,
एक याद युग-युग से विस्मृत
पुन: आ गई मिटा संशय को !
' यह भी बस कहने में आता 'जो कहा जा रहा है उसे कहने में कितनी असमर्थता व्यक्त हो रही है । अति सुन्दर भाव ।
जवाब देंहटाएंकविता के मर्म तक पहुँच कर त्वरित प्रतिक्रिया का स्वागत व आभार अमृता जी !
हटाएंसुन्दर प्रेरणादायी सृजन।
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जवाब देंहटाएंनमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 11 जनवरी 2021 को 'सर्दियों की धूप का आलम; (चर्चा अंक-3943) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत बहुत आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सन्देशात्मक रचना।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन। विश्व हिन्दी दिवस पर शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंउस अनाम से फलित सदा हो
जवाब देंहटाएंस्वयं का ही दर्शन स्वयं को,
एक याद युग-युग से विस्मृत
पुन: आ गई मिटा संशय को !
उत्कृष्ट भाव पूर्ण सृजन
जवाब देंहटाएंबधाई
स्वागत व आभार !
हटाएंउम्दा सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बढ़िया कविता। बधाई।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंवाह दार्शनिकता से परिपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंजीवन दर्शन से सुसज्जित भावपूर्ण रचना..
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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