सब कुछ उसमें वह सबमें है
झर-झर बरस रहा है बादल
भर ले कोई खोले आँचल,
सिक्त हुआ आलम जब सारा
क्यों प्यासा है मन यह पागल !
सर-सर बहता पवन सुहाना
जैसे गाये मधुर तराना,
लहराते अरण्य प्रांतर जब
पढ़ता क्यों दिल गमे फ़साना !
चमक दामिनी दमके अंबर
प्रकटा क्षण में भीतर-बाहर,
हुआ दीप्त जब कण-कण भू का
अंधकार में क्यों डूबा उर !
मह-मह गन्ध लुटाता उपवन
सुख-सौरभ से भर जाता वन,
हुई सुवासित सभी दिशाएं
कुम्हलाया सा क्यों व्याकुल बन !
जर्रे-जर्रे बसा आकाश
दूर नहीं वह हृदय के पास,
सब कुछ उसमें वह सबमें है
फिर क्यों कहे मिल जाये काश !
बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 15-01-2021) को "सूर्य रश्मियाँ आ गयीं, खिली गुनगुनी धूप"(चर्चा अंक- 3947) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद.
…
"मीना भारद्वाज"
बहुत बहुत आभार !
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन
बधाई
स्वागत व आभार !
हटाएंवाह !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंफिर क्यों कहे की मिल जाए काश ... " कस्तूरी मृग कुंडल बसे " यही तो बात है । अति सुन्दर भाव ।
जवाब देंहटाएंमूल बात को ग्रहण करने हेतु स्वागत व आभार !
हटाएंसब कुछ उसमें ... वह सबमें हैं ...
जवाब देंहटाएंगहरी सटीक सुन्दर कल्पना ...