बुधवार, फ़रवरी 3

अब भी उस का दर खुला है

अब भी उस का दर खुला है 


खो दिया आराम जी का 

खो दिया है चैन दिल का,

दूर आके जिंदगी से 

खो दिया हर सबब कब का !


गुम हुआ घर का पता ज्यों

भीड़ ही अब नजर आती,

टूटकर बैठा सड़क पर 

घर की भी न याद आती !


रास्तों पर कब किसी के 

फैसले किस्मत के होते, 

कुछ फ़िकर हो कायदों की 

हल तभी कुछ हाथ आते !


दूर आके अब भटकता 

ना कहीं विश्राम पाता, 

धनक बदली ताल बदली 

हर घड़ी सुर भी बदलता !


अब भी उस का दर खुला है 

जहाँ हर क्षण दीप जलते, 

अब भी संभले यदि कोई 

रास्ते कितने निकलते !

 

8 टिप्‍पणियां:

  1. "अब भी उस का दर खुला है

    जहाँ हर क्षण दीप जलते,

    अब भी संभले यदि कोई

    रास्ते कितने निकलते "


    सही कहा आपने।

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  2. जीवन वर्तुलाकार है पर यह सब कुछ गंवा देने के बाद ही भान होता है । अंततः लौट कर बुद्धु अपने ही आता है । उत्कृष्ट भाव ।

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  3. अब भी उस का दर खुला है

    जहाँ हर क्षण दीप जलते,

    अब भी संभले यदि कोई

    रास्ते कितने निकलते !



    बहुत ही सुंदर रचना ,अब नहीं सभलेगे तो कब ,सादर नमन अनीता जी

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