गुरुवार, दिसंबर 23

अभी मिलन घट सकता उससे

अभी मिलन घट सकता उससे 


 ना  अतीत जंगल के उगते  

ना उपवन भावी के जिसमें, 

वर्तमान का पुष्प अनोखा 

खिलता उसी मरूद्यान में !


एक स्वप्न से क्या मिल सकता 

जिससे ज़्यादा ना दे अतीत, 

जाल कल्पना का भी मिथ्या 

भावी के सदा गाता गीत !


एक बोझ का गट्ठर लादे 

कितना कोई चल सकता है, 

यादों का सैलाब डुबाता 

भव सागर कब तर सकता है !


कल की फ़िक्र आज को खोया 

संवरे अब बने कल सुंदर, 

इस पल में हर राज छुपा है 

पहचानें  ! क्यों टालें कल पर !


अभी-अभी इक सरगम फूटी 

अभी अभी बरसा है बादल, 

अभी मिलन घट सकता उससे 

है परे काल से सदा अटल !




9 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२४-१२ -२०२१) को
    'अहंकार की हार'(चर्चा अंक -४२८८)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. कल की फ़िक्र आज को खोया
    संवरे अब बने कल सुंदर,
    इस पल में हर राज छुपा है
    पहचानें ! क्यों टालें कल पर !
    बहुत ही शानदार वाला जवाब सृजन आपने एकदम सही कहा कल की फिकर में आज को खोया ! आज को खुल कर जीना चाहिए कल किसने देखा, कल का क्या पता हो या ना हो....

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  3. अनुराधा जी, दिगम्बर जी व भारती जी आप सभी का स्वागत व आभार!

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