मंगलवार, दिसंबर 28

हो निशब्द जिस पल में अंतर


हो निशब्द जिस पल में अंतर

शब्दों से ही परिचय मिलता

उसके पार न जाता कोई,

शब्दों की इक आड़ बना ली

कहाँ कभी मिल पाता कोई !

 

ऊपर-ऊपर यूँ लगता है

शब्द हमें आपस में जोड़ें,

किन्तु कवच सा पहना इनको

बाहर ही बाहर रुख मोड़ें !

 

भीतर सभी अकेले जग में

खुद ही खुद से बातें करते,

एक दुर्ग शब्दों का गढ़ के

बैठ वहीं से घातें करते !

 

खुद से ही तो लड़ते रहते

खुद को ही तो घायल करते,

खुद को सम्बन्धों में पाके

खुद से ही तो दूर भागते !

 

हो निशब्द जिस पल में अंतर

एक ऊष्मा जग जाती है,

दूजे के भी पार हुई जो

उसकी खबर लिए आती है !

 

दिल से दिल की बात भी यहाँ

उसी मौन में घट जाती है,

शब्दों की सीमा बाहर है

भीतर पीड़ा छंट जाती है !

 

कोरे शब्दों से न होगा

मौन छुपा हो भीतर जिनमें,

वे ही वार करेंगे दिल पर

सन्नाटा उग आया जिनमें !


9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (29-12-2021) को चर्चा मंच       "भीड़ नेताओं की छटनी चाहिए"  (चर्चा अंक-4293)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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  2. ऊपर-ऊपर यूँ लगता है
    शब्द हमें आपस में जोड़ें,
    किन्तु कवच सा पहना इनको
    बाहर ही बाहर रुख मोड़ें !
    यथार्थ को उजागर करता गहन सृजन ।

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  3. कोरे शब्दों से न होगा
    मौन छुपा हो भीतर जिनमें,
    वे ही वार करेंगे दिल पर
    सन्नाटा उग आया जिनमें
    सुंदर रचना🙏

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  4. भीतर सभी अकेले जग में
    खुद ही खुद से बातें करते,
    एक दुर्ग शब्दों का गढ़ के
    बैठ वहीं से घातें करते !
    हकीकत को बयां करती बहुत ही खूबसूरत रचना😍

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  5. दिल से दिल की बात भी यहाँ

    उसी मौन में घट जाती है,

    शब्दों की सीमा बाहर है

    भीतर पीड़ा छंट जाती है

    भीतर की पीडा। वेहतरीन रचना।

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